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धर्म क्या है? सनातन क्या है? और वर्ण व्यवस्था में शूद्र कौन बने?

                                धर्म

धारयति इति धर्म: 
धर्म का शाब्दिक अर्थ है- धारण करने वाला अर्थात जिसे सब धारण कर सके या जो धारण करने योग्य हो उसे धर्म कहते हैं। 
धर्म शब्द संस्कृत भाषा के " धृ " धातु से लिया गया है, जिसका अर्थ है- किसी वस्तु को धारण करना। 

जो धारण करने योग्य हो उसे धारण करना चाहिए तो ऐसी क्या चीजे हैं जो धारण करनी चाहिए ?
जैसे- सत्य, क्षमा, विद्या, दया आदि, ग्रंथो ने ऐसे धर्मों को धारण करने योग्य बताया हैं, जिससे स्वयं व समाज की उन्नति हो सके। 

गीता के अनुसार धर्म-
गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक का प्रथम शब्द- धर्म से शुरू होता है और अठारवें अध्याय के अन्तिम श्लोक का अन्तिम शब्द- मम पर खत्म होता है। अत: गीता " मम धर्म" पर बल देती है कि मेरा धर्म क्या है। 

इस प्रकार धर्म का तात्पर्य है कि- जो किसी वस्तु का अस्तित्व प्रकट करता है,वह धर्म है जिस प्रकार सूर्या, प्रकाश का अस्तित्व प्रकट करता है तो सूर्य का धर्म प्रकाश है, अग्नि का धर्म ऊष्णता है उसी प्रकार मनुष्य का धर्म मानवता है। क्योंकि मनुष्य, मानवता के अस्तित्व को प्रकट करता है। 

                 धर्म की परिभाषा

महाभारत वनपर्व २०८.९ के अनुसार- 
" स्वकर्मनिरतो यस्तु धर्म: स इति निश्चय: " 
अर्थात- अपने कर्म मे लगे रहना निश्चय ही धर्म है। 

महाभारत वनपर्व ३३.५३ के अनुसार- 
" उदार मेव विद्वांसों धर्म प्राहुर्मनीषिण" 
अर्थात- मनीषी जन उदारता को धर्म मानते हैं। 

महाभारत शान्तिपर्व १५.२ के अनुसार-
"दण्डं धर्म विदुर्बधा:" 
अर्थात- ज्ञानी जन दण्ड को धर्म मानते हैं। 

महाभारत शान्तिपर्व १६२.५ के अनुसार- 
"सत्यं धर्मस्तपो योग:" 
अर्थात- सत्य ही धर्म है। 

महाभारत शान्तिपर्व २५९.१८ के अनुसार-
" दातव्यमित्ययं धर्म उक्तो भूतहिते रतै: "
अर्थात- प्राणियों के हित में लगे रहने वाले पुरूषों ने दान को धर्म बताया है। 

                        धर्म के प्रकार

प्रकृति के नियमानुसार धर्म दो प्रकार का होता है क्योंकि धर्म का अर्थ है- धारण करना। और धारण करने के लिए हमारे पास दो ही चीजे है पहला आत्मा तथा दूसरा शरीर। 
हम एक आत्मा है लेकिन आत्मा को कर्म करने के लिए शरीर की आवश्यकता होती है। अत: इस प्रकार धर्म दो प्रकार का होता है- आत्मा और शरीर। 

धारण करने के लिए जो हमारे पास होता है वह धर्म है लेकिन धारण करता कौन है वह मन है। क्योंकि ब्रह्मबिन्दुपनिषद २ मे कहा गया है कि- 
" मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धुमोक्षयो: " 
अर्थात- मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण है। इसलिए मन द्वारा ही कर्म होता है। अतएव दोनों प्रकार के धर्म को धारण मन करता है। 

नोट- गीता में किसी धर्म विशेष की व्याख्या नही की गयी है। 

                          सनातन

सत्यम् शिवम् सुन्दरम्- यह पथ सनातन है। समस्त देवता और मनुष्य इसी मार्ग से पैदा हुए हैं और इसी से संसार की प्रगति हुयी है। 

ऋग्वेद- सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। अर्थात जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन है। 
जैसे- सत्य सनातन है, ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है और मोक्ष ही सत्य है। और इस सत्य को बताने वाला धर्म ही सनातन है। वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है  और जिसका कभी भी अन्त नही होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। 

वेद कहते हैं- ईश्वर अजन्मा है, उसे जन्म लेने की आवश्यकता नही है, उसने कभी जन्म नही लिया और वह जन्म नही लेगा। ईश्वर तो एक ही है लेकिन देवी-देवता या भगवान अनेक है , उस एक को छोड कर सभी के आधार पर नियम, पूजा, तीर्थ आदि कर्मकांड को सनातन धर्म का अंग नही माना जाता, यही सनातन सत्य है। 

नोट- हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन या बौद्ध आदि सभी धर्म न होकर सम्प्रदाय या समुदाय मात्र हैं। 
सम्प्रदाय एक परम्परा या एक मत को मानने वालों का समूह है। अतएव इन्हें धर्म कहना सर्वथा असत्य है। 

                    वर्णाश्रम/ वर्ण-व्यवस्था

उत्पत्ति- वर्ण शब्द संस्कृत के "वृ" धातु से निकला है, जिसका शाब्दिक अर्थ वरण करना या चुनना है। अत: इसका तात्पर्य व्यवसाय चयन करने से है। और वर्ण का एक अर्थ रंग भी है। 

ऋग्वेद में इसका प्रथम प्रयोग रंग मे हुआ है। जहां आर्यो ने अपने को श्वेत वर्ण तथा दास- दस्युओं को कृष्णवर्ण का बताया है। बाद में यह व्यवसाय का सूचक बन गया तथा व्यवसाय के आधार पर समाज मे वर्णों का विभाजन किया गया। तत्पश्चात इसमे कठोरता आयी और व्यवसाय के स्थान पर जन्म को वर्ण का आधार मान लिया गया। जिसके फलस्वरूप वर्ण जाति मे बदल गया। 

ऋग्वेद के पुरूषसूक्त में चारों वर्णों को विराट पुरूष के चार अंगों से उत्पन्न कहा गया है। विराट पुरूष को अलग-अलग ग्रंथो में अलग-अलग बताया गया है- 
महाभारत मे विराट पुरूष ब्रह्मा को बताया गया है जबकि 
पुराण में विराट पुरूष को विष्णु बताया गया है। 

ऋग्वेद की वर्ण विशेषक अवधारणा श्रम-विभाजन/ कर्म के सिद्धान्त पर आधारित थी। बाद में इसे दैवीय सिद्धान्त बताया गया, जिसके पीछे यह मान्यता थी कि- " ईश्वर की शक्ति से डर कर सभी इसके अनुसार आचरण करेंगे तथा कोई भी इसका उल्लंघन करने का साहस नही करेगा।"   

गीता में कृष्ण ने बताया है कि- चारो वर्णों की उत्पत्ति गुण तथा कर्म के आधार पर की गयी है। जो कि तीन गुण है- 
सतोगुण (सत्य) ज्ञान, रजोगुण (रज) राग/राज, तमोगुण (तम) अज्ञान। 
गुणा: प्रकृति संभवा: अर्थात प्रत्येक प्राणी में प्रकृति के अनुसार कोई न कोई गुण अवश्य होता है।
और जिसमें केवल तम (अंधकार) की प्रधानता होती है वह शूद्र है। 

ऋग्वेद से पता चलता है कि समाज मे केवल दो वर्ण थे- आर्य तथा अनार्य (दास वर्ण)/ उच्च वर्ण व निम्न वर्ण। उच्च वर्ण में राजा होता था व निम्न वर्ण मे समस्त जनता। जो कालान्तर में आर्यों के बाद कर्म के आधार पर इनके विभेद हुए- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य (शेष जनता),
उत्तर वैदिक काल में इसमें शूद्र जोडा गया। (ऋग्वेद के दसवें मण्डल पुरूषसूक्त में इस वर्ण का सर्वप्रथम वर्णन मिलता है।)

प्रारंभ में विद्वानों ने यह मत दिया कि आर्यों ने सिन्धु के इस पार के निवासियों को पराजित कर दास बना लिया तथा उन्हीं को अपनी सामाजिक व्यवस्था में निम्न स्थान देते हुए शूद्र की संज्ञा दी। जबकि रामशरण शर्मा ने शूद्रों की उत्पत्ति में प्रकाश डालते हुए कहा है कि- वस्तुत: इस वर्ग में आर्य तथा अनार्य दोनों वर्ग के लोग थे। आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं ने दोनों वर्गों में श्रमिक वर्ग को जन्म दिया। बाद में सभी श्रमिकों को शूद्र कहा जाने लगा। अथर्ववैदिक काल के अन्त में शूद्रो को समाज के एक अलग वर्ग के रूप मे मान्यता मिल गयी। 

महाभारत के शान्तिपर्व व कुछ पुराणों में भी वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति मे कर्म की महत्ता स्वीकार की गयी है। 
महाकाव्यों के समय (५वीं सदी के लगभग) वर्ण का आधार जन्म मान लिया गया। तथा वर्णों के स्थान पर विभिन्न जातियो की उत्पत्ति हुयी। 

ऋग्वैदिक समाज के प्रारंभ में केवल तीन वर्ण थे- ब्रह्म, क्षत्र, तथा विश। इस काल के अन्त में शूद्र वर्ण का उल्लेख मिलता है। इस समय विभिन्न वर्णों के विवाह, खान-पान, में कोई प्रतिबन्ध नही था। ऋग्वेद के एक स्थान पर ऋषि कहता है - मैं कवि हूं, मेरे पिता वैध हैं, और मेरी माता अन्न पीसती है। इससे स्पष्ट है कि इस समय एक ही परिवार के लोग अलग-अलग कार्य कर सकते थे। 

उत्तरवैदिक काल के आते-आते समाज चार वर्णों में बंट गया। और इसी काल में समाज में भेदभाव सामने आया। इस काल में जैनबौद्ध सम्प्रदायों का उदय हुआ इन्होने जन्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था का विरोध किया। और बौद्ध धर्म ने जाति प्रथा का विरोध किया। 

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागस्य: 
तस्य कर्तारमपि मां विद्घयकर्तारमव्ययम्।।  (श्रीमदभागवद्गीता ४:१३)

अर्थात- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारो वर्णों का वर्गीकरण गुण और कर्म के आधार पर मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि- रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान। 

निष्कर्ष- किसका वर्ण क्या है यह आत्मज्ञानी सन्त बताते हैं और वर्ण व्यवस्था की विशेषता यह थी कि- " जब कोई व्यक्ति जिस वर्ण का हो उसकी उस वर्ण की सेवा मे पूर्णता आ जाती थी तो उसका प्रवास उतरोत्तर वर्ण के लिए स्वत: हो जाता था। "
वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत जन्म से शूद्र वर्ण का व्यक्ति अपने योग्य कर्मों द्वारा ब्राह्मण वर्ण तक पहुंच सकता था। जिसके उदाहरण ऐसे अनेक ब्रह्मज्ञानी संत जिनका जन्म तो ब्राह्मण वर्ण या जाति में नही हुआ था परन्तु उन्होंने साधना रूपी योग्य कृत से ब्राह्मण वर्ण को पाया और समाज ने उन्हें स्वीकार भी किया। 

नोट- हमारी संस्कृति तो स्पष्ट रूप से कहती है कि जन्म से सभी शूद्र होते है, हमारा कर्म हमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बनाता है 



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2 Comments

  1. बहुत ही उम्दा तरीके से ब्याख्या किया भुला

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