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भारत की राजनीति का कपटी चेहरा


हर राज्य में सरकार होती है और सरकार के बिना न तो राज्य की व्यवस्था हो सकती है और न अनके कार्य ही पूरे हो सकते है. साधारण अर्थ में, " जिस संगठित जनसमूह द्वारा राज्य के कार्य व्यवस्थित रूप से चलते हैं" उसे सरकार कहते है

प्राचीन काल में जनता के ऊपर शासन करने के लिए कुलीनतंत्र, राजतंत्र, तानाशाही व प्रजातंत्र की व्यवस्था थी जो वर्तमान में लोकतंत्र का रूप ले चुका है, लोकतंत्र में जनता अपने ऊपर शासन करने के लिए एक नेता चुनती है जिसमें जनता प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भाग लेती है.

जनता के ऊपर शासन करने वाला नेता जनता की हर समस्या का निवारण करने व व्यवस्थित रूप से जनता का भरण-पोषण की जिम्मेदारी को उठाने के लिए बनता है

लेकिन वर्तमान में शासनकर्ता के उद्देश्य बदल गये है, आज जनता द्वारा चुनने की प्रक्रिया तो नीति नियम से ही होते है परन्तु शासनकर्ता (नेता) व्यवस्थापिका या समस्या को सुनने समझने के लिए नही बनते बल्कि अपने रोब को स्थापित करने के लिए बनते है कि उनके पास कानून के साथ खेलने व जनता की सुख-सुविधाओं को छीनने की शक्ति प्राप्त हो सके.

चुनाव के दौरान प्रत्याशियों का जनता के सामने दुम दबा के लेटना यह बतलाता है कि जो आज जीत के लिए लोगों के तलवों को चाटने के लिए मजबूर है वो जीतने के बाद कैसे जनता का खून चूसते है, छल-कपट की ये राजनीति केवल मात्र दिखावा है और जनता इतनी बुद्धिहीन बनी है कि नेताओं के रंग को पहचानने के बाद भी लोकतंत्र की ताकत को नही समझ पा रही है.

भारत बहुविविधता वाला देश है और इसकी इसी विशेषता को मुददा बनाकर नेता जनता के आपसी भाई-चारे के बीच जहर घोलने का काम करते है और जिस दल का प्रभाव ज्यादा होता है वो सत्ता को हासिल करता है, फिर चाहे वो उस काबिल हो या न हो लेकिन राज करने के लिए वो ही चुना जाता है

राजा वही होता है जो जनता के हितार्थ काम करता है जनता की समस्याओं को समझता है लेकिन दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भाजपा के प्रत्याशियों का लोगों के पैरों में लमलेट होना राजा की सही परिभाषा नही बतलाता बल्कि बताता है तो उनकी नीतियों की चापलूसी जो दिल्ली की वेल एडुकेटेड पब्लिक ने भांप ली थी.

इस बात से साबित हो जाता है कि देश की राजधानी दिल्ली में विकसित समाज बसता है जो अन्य राज्यों के भ्रमित लोगों की तरह नही है जो कट्टरता के नाम पर इंसानियत भूल जाये 

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