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श्री गुरू कैलापीर बग्वाल-बलराज महोत्सव (मंगसीर बग्वाल का वर्णन)

थाती कठूड के बूढाकेदार गॉव में गुरू कैलापीर बग्वाल-बलराज महोत्सव लगभग 500 साल से भी पुरानी परम्परा है जो अनुमानित 13वीं शताब्दी से टिहरी रिसासत के राजशाही समय से तीन पट्टियों में मनायी जाती आ रही है

गुरू कैलापीर बग्वाल-बलराज महोत्सव सामान्यत: कार्तिक माह की दीपावली के ठीक एक माह बाद मार्गशीर्ष (मंगसीर) में मनायी जाने वाली स्थानीय दिवाली व मेला (बग्वाल-बदराज) है जो कि क्षेत्र के देवता श्री गुरू कैलापीर के गॉव आगमन व महिमा के हर्षोलास में मनायी जाती है

बूढाकेदार में मंगसीर की बग्वाली का इतिहास

गुरू कैलापीर देवता मूल रूप से कुमाउं (चम्पावत) सात लाख सलाण-दस लाख दुमाग के आराध्य देवता थे जहां सभी योद्धा (भड) के आराध्य देव काल-भैरव, कैलावीर, कैलाशवीर, कैलवीर अर्थात गुरू कैलापीर के मन्दिर बनवाकर पूजे जाते थे, लेकिन मुगल शासन काल में सत्ता की होड में कैलापीर की पूजा अर्चना में व्यवधान आने के कारण क्षेत्रीय हकूकदार व प्रजा के विधि-विधानों में मुस्लिम शासकों द्वारा व्यवधानों के चलते देवता के नाल्या-कटाल्यों ने देवता कैलापीर को क्षेत्र से गमन हेतु प्रार्थना की, अन्तत: कैलापीर ने अपने 54 चेले व 52 बेडे (परिवार) को चलने का आदेश दिया, और अपने सभी नाल्या-कटाल्यों ( निज्वाला, पुजारी, औजी, बेडा, वीर आदि) के साथ गुरू कैलापीर का नेजा ( निसाण) कुमाउं के चम्पावत से चल पडा.
कुमाउं से चलकर देवता विक्रमी संवत् 1317 ( मार्गशार्ष माह की कृष्णी चतुर्दशी एवं अमावस्या) को गढवाल मण्डल मे टिहरी के बूढाकेदार क्षेत्र के जन्द्रवाडा जगह पर पहुंचा जहां से बूढाकेदार गॉव साफ दिख रहा था , देवता व देवता के साथ आये अनुयायियों की भीड को देखकर गॉव वालों मे रात के समय मुछाल-लम्पू-छिलकों की रोशनी से देवता का स्वागत किया (जिस कारण पहले बग्वाल मनायी जाती है), और सुबह जिस प्रकार मेहमान के आवगमन पर साफ-सफाई, रंगाई-पोतायी की जाती है वैसे पूरा गॉव को सजाया (जो कि मेले बलराज का रूप बना), यह देख कर कैलापीर व चौवनी चेडे व बावनी बेडे प्रसन्न हो गये, इस सम्मान के कारण कैलापीर ने यहां बसने का विचार किया और प्रतिपदा के दिन बूढाकेदार मन्दिर में अपनी पिण्डी स्थापित करवायी.

नोट- यही कारण है कि बूढाकेदार गॉव मार्गशीर्ष माह में देवता के आगमन की खुशी में दिवाली (बग्वाल) मनायी जाती होगी.

योद्धाओं का आराध्य कैलापीर 

कैलापीर योद्धाओं का आराध्य देव था जिस कारण श्रीनगर के राजा मानशाह ने गोरखाओं के विरुद्ध युद्ध में कैलापीर को आमन्त्रित किया, देवता द्वारा बोगस्याली विद्या से गोरखाओं को परास्त कर राजा मानशाह को जीत दिलायी.
विजय की खुशी में राजा ने कैलापीर को तीन कठुड (थाती कठुड, गाजणा कठुड, नाल्ड कठुड) जो नब्बे जूला कठुड कहा जाता है तथा कुश कल्याण बुग्याल से आय की जागीर भेंट की 

18वीं शताब्दी में गढवाल मण्डल में गोरखाओं द्वारा पुन: अत्यचार बढने लगे तब राजा सुदर्शन शाह की माता रानी के स्वप्न में आकर कैलापीर ने गोरखाओं को परास्त करने के दिशा निर्देश दिए, कैलापीर के बताये मार्गदर्शन के फलस्वरूप रानी ने ब्रिटिश हुकुमतों से मदद मांगी व गोरखाओं को परास्त कर वापिस नेपाल खदेड दिया, 

नोट-तब से देवता की महिमा तीनों कठुडों मे फैल गयी व बलराज मेले में विजय दौड़ का प्रचलन हुआ होगा

गुरू कैलापीर बलराज-बग्वाल मेले की पुरानी परम्परा

कुश कल्याण बुग्याल से भेड बकरी चुगान वालों की ओर से प्रतिवर्ष देवता के मेले के लिए निशाण बाखरे (बकरी) भेजे जाते थे, बताया जाता है कि जब कैलापीर की बदराज बग्वाल होती थी तो नेजा मन्दिर से बाहर निकालने के समय बकरी की बलि दी जाती थी जिसके लिए निशाण बाखरू (बकरी) एक साल मेड,मरवाडी व निवालगॉव की ओर से तथा एक वर्ष कोटी अगुंडा की ओर से आती था, 
वर्तमान में बलिप्रथा पर रोक लगा दी गयी उसके बदले बकरी के खर्च को देवता की रसीद के रूप में कटवाया जाता है.


गुरू कैलापीर बलराज-बग्वाल (मंगसीर की बग्वाल)

नब्बे जूला अर्थात तीन कठुड (थाती कठुड, गाजणा कठुड, व नाल्ड कठुड) में गुरू कैलापीर की बग्वाल व मेला प्रतिवर्ष कार्तिक माह की दीपावली के ठीक एक माह बाद चतुर्दशी व अमावस्या (मार्गशीर्ष माह) को मनाया जाता है, चतुर्दशी को छोटी बग्वाल व अमावस्या को बडी बग्वाल मनायी जाती है, बग्वाली की रात ग्रामसभा की ओर से नगर (स्थान) पर होंडका रांसू (आग जलाकर नृत्य) किया जाता है उसके बाद 11-12 बजे रात पुंडारा के सेरा में जाकर बग्वैठा (भैला) घुमाकर व पटाखे जलाकर जश्न मनाया जाता है जिसमें पूरा गॉव (पुरूष महिलाएं बच्चे बूढे लडके लडकिया) पूरा प्रतिभाग करते है.
अमावस्या की रात 12 बजे देवता को दिवारद्यू (यमदीप) दिया जाता है जिसके अगले दिन पूरे क्षेत्र से पुरानी प्रथा के अनुसार ठकुराल गाजे बाजे के साथ देवता को मन्दिर से बाहर निकालने के लिए पहुंचते हैं 
देवता बलराज( मेले) के लिए 2 बजे दिन में नेजा रूप मे मां राजराजेश्वरी के मन्दिर से बाहर निकल कर पुण्डारा के सेरा में विजय दौड ( आस्था की दौड) लगाता है, देवता के स्वागत व उल्लास मे पूरा जनसमूह पट्टासुडी ( सूटी) बजाकर देवता को अपनी आस्था व खुशी को प्रदर्शित करते है जिससे देवता भी भैंकर दिवांस (खुशी की लहर/ कला) में रम जाता है,
पुण्डारा का सेरा में दूर-दूर से लोग देवता के साथ आस्था की दौड लगाने आते है व जो दौड नही पाते वह छतों पर बैठ कर यह भव्य दर्शन के साक्षी बनते है, प्रत्येक दौड के चक्कर में अलग-अलग गॉव के ठकुराल देवता को पकड कर अपना-अपना चक्कर पूरा करते है,
6 दौड पूरी करने के बाद 7वीं दौड में देवता पर पराल को फेंक कर बडा हर्ष मनाया जाता है इसी बीच कैलापीर ध्याणियों की पूजा पिठांयी को स्वीकर कर अपना आशीर्वाद समस्त जनता को देकर रक्षिया गॉव के नौ-जवानों की आड ( बाहु बल से बनी दीवार) को तोडकर योद्धा होने का परिचय देता है और सांय 4 बजे अपने मन्दिर में प्रस्थान कर देता है. 

नौ-जवानों की आड- थाती बूढाकेदार के रक्षिया गॉव को भडों का गॉव कहा जाता है जहां के युवा बाहुबल में आज भी शक्तिशाली हैं, कैलापीर अपने योद्धा होने का परिचय इस मेले मे नौजवानों की लगायी बाहुबल की आड को तोडकर विजय पाने से देता आ रहा है, इस गुथ्मगुथ्था में रक्षिया के लोग देवता को सेरा से जाने के लिए पूरी जी जान से रोकते है लेकिन देवता व युवाओं के इस संघर्ष में कैलापीर विजय होकर यह प्रथा को बडे शौक से पूरा करता है.

जिस दिन देवता बाहर आता है इस दिन से गॉव में 3 दिवसीय मेला प्रारंभ हो जाता है, यह मेला प्राचीन समय के मेलों की ही भांति था जो दूर-दराज के लोगों के लिए क्रय-विक्रय का एक महत्वपूर्ण जरिया था जब बाजार व्यवस्था का उदय नही हुआ था, लेकिन आज भी उसी प्रथा के चलते मेले ने भी वर्तमान रूप ले लिया है, 
मेले के कुछ दिनों पहले से गॉव में हिंग्लो (हाट व्यापारी) आने लग जाते है, चुडी-बिन्दी मसाले चर्खी-झूला कपडे-बर्तन हिंग-लौंग खेल-खिलौने की दुकानों के साथ-साथ सबकी जुबानों में ताती-ताती जलेबी पकोडी की जो गूंज होती है वह पल हजार रुपयों को खर्च कर शहरों की भीड में कभी नही मिल सकती.
 मंगसीर मैना की बग्वाली का उत्साह

मंगसीर माह की बग्वाली का उत्साह पूरे क्षेत्र में बडा आनन्दित व हर्षोलास भरा रहता है, बग्वाली के एक माह पूर्व से ही लोग अपने घर गॉव की सजावट में लग जाते है रंगाई-पोताई, साफ-सफाई, घरेलु सामानों की खरीददारी व पूरे परिवार के लिए कपडे बनाने का प्रचलन आज भी मनमोहक होता है, गॉव में यदि कोई परिवार गरीबी हालत में भी होता है पर वो भी इस उत्साह से अछूता नही रहता होगा वो भी पूरे साल कपडे न ले पर इस समय नये कपडे सामान सजावट जरूर करता है जो कि इस देवता की ही कृपा से संभव हो पाता है, 
प्रत्येक गॉव वासी अपने दूर दराज के सगे सम्बन्धियों कों इस बग्वाल मेले के लिए अपने घर में आमंत्रित करते है पूरे गॉव में प्रत्येक घरों में महमान नवाजी के साथ लाजवाब गढवाली व्यंजनों व रांसों तांदी झुमेलों नृत्य आदि उत्साह देखने को मिलता है
सबसे ज्यादा उत्साह बच्चों में इस मेले के प्रति रहता है जो पूरे साल भर इसी मेले के इंतजार मे रहते है मेहमानों के आवाजाही छुट्टिया शॉपिंग खिलौने इत्यादियों से बच्चों के लिए यह माह स्वर्ग के आनन्दों सा प्रतीत होता है

गुरू कैलापीर बलराज-बग्वाल को मिला राज्य मेला का दर्जा

वर्तमान समय में मेलों के रूप विकसित हो चुके है जिसके आधार पर भी बूढाकेदार मन्दिर समिति द्वारा इस मेले के लिए हर साल नयी नयी तैयारियां की जाती है जिसमें सांस्कृतिक कार्यक्रम, विकास मेला, स्थानीय बाजार विभिन्न विभागों के स्टाल व नेताओं को आमंत्रण आदि प्रमुख होते है, वर्ष 2018 में वर्तमान मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को मेले मे आने का आमंत्रण दिया गया था जिन्होने आकर बूढाकेदार के गुरूकैलापीर बलराज-बग्वाल मेले को राज्य मेला घोषित किया था जो कागजी रूप में भी राज्य मेला घोषित हो चुका है 

दो शब्द-  यह वर्णन मैं अपने पुत्र विनोदादित्य समरथ सुनार के ऐतिहासिक ज्ञान के लिया कर रहा हूं और जो पाठक अपने बच्चों को रीति-रिवाज के सम्बन्ध में ज्ञान देना चाहते है उन सब बातों को सोचकर मैं यह कोशिश करता रहूंगा कि अपने तथा अपने रिवाजों को विरासत रूपी लेखों से समाज के प्रति प्रकाशित करता रहूंगा

लेखन- सागर सुनार बूढाकेदारिया

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3 Comments

  1. बहुत ही सार्थक जानकारी। धन्यवाद सागर सुनार जी

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  2. Very significant and relevant information. Vary good Sagar Ji.

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  3. अति सुंदर वर्णन सागर जी👍👍

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