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बूढाकेदार मन्दिर (लिंग की उत्पति के सम्बन्ध मे अनुमानित तथ्य)

प्रस्तावना 
उतराखण्ड के उत्तर में चार धाम (यमनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ व बदरीनाथ) प्रसिद्ध है, प्राचीन काल में इन धामों की यात्रा पैदल मार्ग से की जाती थी, यमनोत्री व गंगोत्री के बाद लाटा भटवाडी(उतरकाशी) से  यात्री पैदल चलकर बूढाकेदार नाथ धाम पहुंचते थे, जिसके बाद त्रिजुगीनारायण होते हुए केदारनाथ व बदरीनाथ जाया जाता था. 

बूढाकेदार क्षेत्र

यात्रा की दृष्टि से बूढाकेदार महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है, उतराखण्ड चार धाम यात्रा के मध्य में स्थित यह गॉव रहस्यमयी शिवलिंग का स्थान है, जिसका वर्णन महाभारत के केदारखण्ड के 99 वें अध्याय में भी उल्लेखित है जहां पाण्डवों को शिव ने वृद्ध रूप में प्रथम बार दर्शन दिये थे. 

दो नदियों (बालगंगा, धर्मगंगा) के संगम पर बसा थाती गॉव सौन्दर्य दृष्टि से भी रमणीय स्थल है, बालखिल्य मेखला मे स्थित यह क्षेत्र चारों ओर में उत्तर से पूर्व की ओर धर्मकूट, पूर्व से दक्षिण की ओर सिद्धकूट, उत्तर से पश्चिम की ओर यक्षगिरी और उत्तर से दक्षिण की ओर अप्सरागिरीशैलेश्वर पांच पर्वतों से घिरा है, पूर्व की ओर बालगंगा व पश्चिम की ओर धर्मगंगा नदी के डेल्टा पर बसे थाती गॉव के मध्य में बूढाकेदार नाथ का प्रसिद्ध मन्दिर है

अनुमान के आधार पर बूढाकेदार नाथ लिंग की उत्पति

महाभारत के धर्मयुद्ध के बाद गोत्र हत्या पाप की मुक्ति पाने के लिए वेदव्यास जी ने पांडवों को शिवजी के दर्शन के लिए कहा कि- शिव के दर्शन मात्र से ही गोत्र हत्या पाप से तुम्हे मुक्ति व मोक्ष प्राप्त हो जायेगा, व्यास जी की सलाह को मानते हुए पांडव उत्तर दिशा की ओर निकल पडे,  उत्तर दिशा की ओर जब पांडव भृगु पर्वत के ऊपर पहुंचे तो धर्मगंगा व बालगंगा के तट पर धुंआ उठ रहा था, पूछताछ हेतु पांडव नीचे उतरे व देखा कि वहां कोई बूढे बाबा धूनी रमाये बैठें है, पांडवों को देख बाबा चौकते हुए अंतरध्यान हो गये और वहां एक शिला प्रकट हुयी, तभी आकाशवाणी हुयी कि- "हे पांडव तुम गोत्र हत्या के पाप से मुक्त हो गए हो लेकिन मोक्ष प्राप्त तब ही हो पायेगा जब शिव के साक्षात दर्शन कर पाओगे" 
पांडवों ने बाबा के अन्तरध्यान होने के बाद प्रकट हुयी शिला  पर भगवान शंकर पार्वती गणेश नन्दी और पांचो पांडव की आकृतियां बनवायी, शिला को एक झोपडी नुमा मन्दिर में रख कर शिव के दर्शनार्थ हेतु सहस्रताल वाले रास्ते से केदार नाथ को निकल गये (जिसके साक्षात प्रमाण वहां के स्थानों आकृतियों खेतों आदि से आज भी प्राप्त होते है)

अनुमानित तथ्य है कि कुछ सालों बाद जल-प्रलय (भौगोलिक परिवर्तनों) के कारण पांडवो द्वारा उतकीर्ण की हुयी वही शिला भूमि लीन हो गयी, कई बरसों तक यह क्षेत्र घने जंगलो, झाडियों आदि से मानव रहित रहा,

मानव सभ्यता के बाद बूढाकेदार लिंग का उदय

दो नदियों के तट पर यह डेल्टाई क्षेत्र अधिक उपजाऊ होने के कारण चरवाहो के लिए उत्तम स्थान था और आस पडोस के गॉव वाले यहां अपने पशुओं को चराने हेतु भेजा करते थे,

लोकमान्यताओं के अनिसार-
एक बार एक गाय स्वामी को शंका हुयी कि जब गाय दूधने का समय आता है तो गाय के थन खाली रहते है, दिन भर जंगल में गाय को कोई दूध ले जाता है, और एक दिन वह गाय का पीछा करते हुए जंगल पहुंचा जहां उसने देखा कि गाय कुछ देर चरने के बाद एक स्थान पर अपना दूध स्वंय गिरा रही है, यह देख वह व्यक्ति चौंका व घर आकर सभी को आंखोदेखी बयान करने लगा, गॉव वालों ने उसके कहे पर वह स्थान पर खुदायी की तो एक शिला निकली जिसपर  शिव पार्वती गणेश व पांचपांडवो की आकृति उत्कीर्ण थी, जिसे देख लोग चौंक गए व। पूजा अर्चना करने लगे.

बूढाकेदार मन्दिर की शिलान्यास

पांडवों ने जिस स्थान पर धुनी रमाये बाबा को देखा था वहां जो शिला प्रकट हुयी सबसे पहले द्वापर युग में पांडवो द्वारा झोपडी बनायी गयी थी, समय चक्र के फलस्वरूप यह स्थान घने जंगलो में बदल गया था और वह शिला भूमिलीन हो गयी थी, लेकिन कालान्तर में पशु चरवाहो द्वार इस स्थान का जीर्णोद्धार हुआ, धीरे-धीरे यहां लोगों का आवगमन एक शिला के दर्शन हेतु बढने लगा, व यहां मानव सभ्यता का विकास हो गया, फिर चांदपुर गढवाल के चौड़याल वंशीय राजा भानु प्रताप ने पहली बार यहां पर पत्थर से बना एक मन्दिर बनवाया, बाद में परमार वंशीय राजा कनकपाल के शासन काल में इस मन्दिर की पूजा गोरखनाथ सम्प्रदाय के नाथों से करवाना प्रारंभ हुआ, 

कई सालों तक मन्दिर पैदल यात्रा के समय चार धाम यात्रा के मध्य का स्थान था, जहां यात्री बाबा के दर्शन कर सुनारों की तिमंजली धर्मशाला में ठहरते थे व अगले दिन केदारनाथ के लिए निकलते थे 
कई युगों पुराना बूढाकेदार मन्दिर स्थान जीर्ण-शीर्ण अवस्था में रहा जो, 1991 के विनाशकारी भूकंप से ध्वस्त हो गया था, शासन व गुरूकैलापीर के निर्देशों पर स्थानीय लोगों व बूढाकेदार मन्दिर समिति के करकमलों से बूढाकेदारनाथ मन्दिर का नव निर्माण किया गया जिसका शिलान्यास 14 जून 1993 को जगतगुरू शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी के हाथों से रखवाया गया

बूढाकेदार नाथ

बूढाकेदार मन्दिर के दोनों ओर धर्मगंगा व बाल गंगा नदी बहती है जो गॉव के नीचे धर्मप्रयाग संगम पर मिलती है, चोरों ओर से पांच पर्वतों से घिरा यह स्थान देवदार चीड बांझ-बुरांश के जंगलों से ढका है, लगभग 30-35 फुट ऊंचा यह मन्दिर तरासे गए पत्थरों से बना है, जिसपर कई देवी-देवताओ की मूर्ति अलंकारण किए आकृतियां बने है, 

मन्दिर गृह चार परकोटों मे विभक्त है, जहां-
प्रथम परकोटे को दरवार  कहते है, जहां से गर्भगृह मे विध्यमान लिंग के दर्शन होते है, , 
दूसरे परकोटेको गर्भ गृह कहते है, जहां बूढाकेदार का लिंग है, लिंग के साथ में बायीं ओर तीन शक्ति- आकाश भैरव, पाताल भैरवभूशक्ति, श्री गुरूकैलापीर की पिण्डी के साथ विद्यमान है, 
तीसरे परकोटे- में लिंग की तरफ पीठ किए बिना प्रवेश किया जाता है जहां दुर्गा देवी एंव भैरव की पत्थर की मूर्तियां है, इसी परकोटे मे गोरखनाथ गद्दी भी है, जहां रावल लोग बैठकर ध्यान संध्या करते है, 
चौथे परकोटे में गरुड एवं  विष्णू जी की काले संगमरमर की मूर्तियां थी (गरूड व विष्णू जी को भी यहां पूजा जाता है जिसका कारण महाभारत में भीष्मपिता महा द्वारा बताया गया था कि जटायु का जन्म बूढाकेदार के गिद्ध पर्वत पर होगा अत: यह स्थान गिद्ध राज जटायू का भी जन्म स्थान है)

मन्दिर प्रांगण में नाथ सम्प्रदायों के पुजारियों की समाधियां हैं जिनमें से एक समाधि सती प्रथा के समय की सबसे पुरानी समाधि है, बताया जाता है कि- इस समाधि में एक रावल के साथ उनरी पत्नी भी सती गयी थी


मन्दिर की पूजा

नाथ सम्प्रदाय के लोगों मे से देवता एक को रावल चुनता है जो कान फाड कर सांसारिक मोह से जोग धीरण कर मन्दिर की पूजा अर्चना करता है, पूजा के लिए पूरे नाथ सम्प्रदाय को दो वर्गों में बांट दिया है जिस कारण पूजा में ब्यधान उत्पन न हो और निरन्तर पूजा होती रहे, जिस व्यवस्था को देख कर नाथ वर्ग के रावलों की महीने वार बारी लगायी जाती है

खोली के नाथ- नाथ सम्प्रदाय से एक वर्ग खोली के जोगी भी है जो मन्दिर के गेट(खोली) पर पूजा करते है और मन्दिर की जात,पूजा में अपनी भूमिका निभाते आ रहे है, जो भी नाथ स्वेच्छा से कान फाडना चाहे वह कान फाड कर जोगी रूप धारण कर बूढाकेदार के सेवा मे लग जाता है

दो शब्द- श्री बूढाकेदार नाथ धाम मन्दिर में स्थित लिंग की यह गाथा मुझे मेरे पिताजी स्व श्री विनोद सुनार जी द्वारा बचपन में सुनायी गयी थी जिसे लिखकर मैं समाज में मन्दिर से सम्बन्धित रोचक तथ्यों को उजागर कर पाने की कोशिश कर रहा हूं

                         लेखन- सागर सुनार बूढाकेदारिया

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1 Comments

  1. पुन्हा एक बार शान दार वितांत्त के लिए शुभ कामना

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