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सुनार जाति का स्वर्णिम इतिहास

प्रस्तावना

सुनार भारत तथा नेपाल मे स्वर्णकार समाज से सम्बन्धित हिन्दू जाति है. जिनका कार्य सोने व चांदी के आभूषण बनाना, खेती करना तथा सात प्रकार के शुद्ध व्यापार करना है. सोने के आभूषण बनाने की वजह से ही इन्हें स्वर्णकार या सोनार भी कहा जाता है. मूलत: ये क्षत्रिय वर्ण मे आते हैं इसलिए इन्हें क्षत्रिय सुनार भी कहा जाता है.

सुनार जाति भारत के सभी राज्यों मे पायी जाती है. जिसमे से उतराखण्ड़ के टिहरी व उत्तरकाशी जिले में सेठ धिरजू सुनार का कुटुम्ब इकलौता सुनार जाति का है. आज हम उतराखण्ड़ के इस अकेले कुटुम्ब की जाति का वर्णन करेंगे कि सुनार जाति की वास्तविक्ता क्या है.

सुनार शब्द की व्युत्पत्ति

सुनार शब्द संस्कृत के स्वर्ण+कार शब्द से मिलकर बना है. स्वर्ण का अर्थ- सोना (धातु), तथा कार का अर्थ- बनाने वाला होता है. इस प्रकार सुनार शब्द संस्कृत भाषा के स्वर्णकार का अपभ्रंश है जिसका अर्थ सोने की धातु से आभूषण या सोने जैसी फसल का निर्माण ( उत्पादन ) करना है. 

जाति व्यवस्था के आधार पर यदि हम जाने तो जिस प्रकार पहले जाति कर्म के आधार पर होती थी और बाद मे जन्म के आधार पर होने लगी, उसी प्रकार प्रारंभ मे कुछ लोग स्वर्ण धातु के जानकार रहे होंगे जो सोने के आभूषणों को बनाते थे उन्हे स्वर्णकार कहा जाता था. लेकिन पीढी-दर-पीढी काम करने के बाद उनकी एक जाति ही बन गयी जो सुनार कही जाने लगी.

सुनार जाति का इतिहास

मानव सभ्यता के आरंभ मे जब धातुओं की खोज हो गयी थी, तब शाही वर्ग आभूषणों को अपनी शान में पहनते थे, उनकी शान को बढाने के लिए सोने चांदी के आभूषणों की कला मे निपुण लोगों को स्वर्णकार कहा जाता था. पीढी-दर-पीढी काम करने वाले स्वर्णकार, सुनार कहलाये.

सोने व चांदी के काम में धन-दौलत, मान-सम्मान कर्म मे गौरव ( शाकाहारी, सुन्दर,चरित्रवान,साहसी तथा पूरक शक्ति से सिद्ध) को देख अन्य जाति के लोगो ने भी सुनार जाति के व्यवसाय को अपनाना शुरू कर दिया, जिन्हें केवल आभूषण बनाने वाला कहा जाता हैं. अन्य जाति का स्वर्णकार  सुनार जाति मे उसी प्रकार पहचाना जाता है जिस प्रकार हंसों मे अन्य पक्षी.

सुनार जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे लिखित दस्तावेजों का अभाव है, इस जाति के इतिहास में केवल ब्राह्मणवादी किंवदंतियों के आधार पर कई मान्यताएं हैं जिनमे से कुछ अग्रलिखित हैं-

■ सोनवा नामक दैत्य और सुनार

एक दन्तकथा के आधार पर, सृष्टि के आरंभ मे देवी भगवती मानव जाति का निर्माण कर रही थी और सोनवा दानव( जो कि सोने से बना था) मानवों को खा जाता था. माता ने दानव को चकमा देने के लिए सुनार का निर्माण किया और उसे सुनार के सारे उपकरण देकर सोनवा दानव को किस प्रकार चकमा देकर निष्क्रिया करना है बताया. सुनार को सोनवा दानव को पिघला कर धड से सर अलग करना था. जब दानव सुनार को खाने आया तो सुनार ने दानव को कहा कि मैं तुम्हें और ज्यादा चमका दूंगा. दानव ने परिणाम देखने के लिए अपनी एक उंगली को चमकाने के लिए दिया, सुनार ने उसे लगन से चमकाया तो दानव खुश हो गया और अपना पूरा शरीर सुनार को देकर चमकने का इंतजार किया. तभी सुनार ने दानव को पिघला कर उसका सर धड  से अलग कर दिया.

■ मैढ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज

सुनार जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा भी प्रचलित है जिसमें लोकमानस जनश्रुति के अनुसार बताया जाता है कि- त्रेता युग मे जब भगवान परशुराम ने एक-एक कर के सभी क्षत्रियों का संहार करना प्रारंभ किया तो दो क्षत्रिय भाइयों को सारस्वत नाम के ब्राह्मण ने बचा लिया और उन्हें कुछ  समय के लिए मैढ बताया. उन दो भाइयों मे से एक भाई ने सोने के आभूषण बनाने का काम किया जो सुनार बन गया, तथा दूसरे भाई ने खतरे को भांप लिया जो खत्री बन गया. वर्तमान में इन्हें मैढ राजपूत नाम से जाना जाता है, यह वही राजपूत हैं जिन्होने सोने के आभूषण बनाने को अपने पारंपरिक कार्य के रूप मे चुना है.

सुनार जाति राजपूत से शिल्पकार कैसे कहलायी

प्राचीन समय मे सुनार उच्च वर्ग मे स्थान रखते थे क्योंकि वर्ण व्यवस्था के समय वर्ण कर्म और धन-दौलत के आधार पर निर्धारित थे, जिसमे सुनार गौरवशाली इतिहास ( ब्रिटिश सरकार के नियमों को चुनौती देने वाले मैढ  तथा टिहरी रियासत मे धिरजू सुनार द्वारा राजा को ललकारने वाले सुनार), वैश्य वर्ण मे शुमार जो धन-धान्य मे सभी वर्णों मे बडा, तथा योद्धा (भड), साहसी था. लेकिन कई उतार चढाव के दबाव में सुनार जाति को हस्तशिल्प द्वारा अपना जीवन यापन करना पडा, जिस वजह से टिहरी गढवाल मे सुनार शिल्पकार जाति का कहलाया. लेकिन भारत के अन्य जगहों पर सुनार आज  राजपूत प्रतिष्ठा में वापस कहलाये जाते हैं.

सुनार जातिगत आधार पर- बिहार, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, पश्चिम बंगाल तथा उतराखण्ड के (टिहरी और उत्तरकाशी जिले को छोड कर) आदि में अन्य पिछडा वर्ग (OBC) में आते हैं. केवल टिहरी और उत्तरकाशी में सुनार को हस्तशिल्प कला के आधार पर शिल्पकार माना जाता है.

सुनार जाति का पेशा

सुनार  सामान्यत: बणिये है, जो सोने चांदी व अन्य बहुमुल्य धातुओं के आभूषण बनाते हैं, बहुमुल्य रत्नों का  व्यापार करते हैं, पुराने गहने खरीदते हैं, गहने गिरवी रख कर ब्याज पर पैसे भी देते हैं. जो सोनार कहलाते हैं.


लेकिन आज कुछ ग्रामीण इलाकों मे रहने वाले सुनार अपने पारंपरिक कार्य को छोड खेती बाडी कर रहे है तो कुछ बेहतर शिक्षा और रोजगार की नयी उपलब्धता के आधार पर अन्य पेशा और व्यवसाय मे भी नाम कमा रहे हैं.

सुनार जाति के वर्ग और उपनाम

अन्य जातियों की भांति सुनार जाति में भी उपसमूह या उपजातियां होती है. इस जाति मे अल्ल ( प्रादेशिक और गैर क्षेत्रीय समूह मे जाति विभाजित) की परंपरा प्राचीन है. अल्ल का अर्थ होता है- निकास अर्थात जिस जगह से सुनारों के पूर्वज आये और दूसरी जगह बस गए. प्रत्येक उप समूह एक विशेष क्षेत्र से जुडा हुआ होता है जहां से इनके पूर्वज थे.

सुनार जाति तीन वर्गों मे विभाजित है- चार, तेरह और सवा लाख जिनमे इनके अल्ल इस प्रकार हैं-

कुछ प्रमुख अल्लो के नाम- परसेटहा,अखिलहा, अग्रोया,कटिलिया कालिदारवा, कटारिया, कटकारिया, कड़ैल, कदीमी, कुकरा, देखालन्तिया, खजवाणिया, गेदहिया, ग्वारे,
धेबला, चिल्लिया, चिलिया, छिबहा, जडिया, जवडा,जौड़ा,
झंकखर, डांवर, डसाणिया, ढल्ला, नौबस्तवाल, निमखेरिया,
नेगपुरिया, नौबस्तवाल, नागवंशी,नरबरिया, तित्तवारि, देखलंतिया, दैवाल, पितरिया, पलिया, बेरेहेले, बंगरमौआ, भीगहिया, भटेल, भड़ेले, भुइगइयाँ, भदलिया, भोमा, मुंडाहा, मदबरिया, मथुरेके पलिया, महिलबार, मुण्डहा, रोडा, संतानपुरिया, समुहिया, सड़िया, सुरजनवार, समुहिया, शाहपुरिया आदि

सुनार जाति में प्रचलित प्रमुख उपनाम हैंशाह, सोनी,
सूरी, सेठ, स्वर्णकार, भूटानी, सोनिक, कपूर, बब्बर, मेहरा, रस्तोगी, वर्मा आदि.

नोट- सुनार जाति के उपनामों मे से धिरजू सुनार जी को सेठ तथा शाह की उपादि से क्षेत्रवासियों द्वारा नवाजा गया था. जिस वजह से लोग आज भी सेठ धिरजू सुनार से हमारे परदादा जी को जानते हैं और हमें शाह कह कर पुकारते हैं.

सुनार जाति का धर्म

सुनार जाति के लोग मुख्य रूप से हिन्दु होते हैं लेकिन कुछ सुनार जातियां सिख धर्म में भी है जो हरियाणा और पंजाब मे पाए जाते हैं जिन्हे सुनारिए कहा जाता है.

भारत मे सुनार जाति

भारत मे सुनार जाति लगभग सभी राज्यों मे निवास करती हैं लेकिन मुख्य रूप से सुनार जाति बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखण्ड, हरियाणा, राजस्थान, पश्चिम बंगाल व उतराखण्ड मे पाए जाते है. मध्य भारत के राज्यों जैसे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ मे सुनार बहुतायात मे पाये जाते है जिनमे अमीर व सम्पन्न सुनार परिवार गॉवों के मुकाबले बडे शहरों मे ज्यादा होते हैं.

इनमें से एक सुनार जाति का कुटुम्ब टिहरी और उत्तरकाशी जिले के तीन कठुड (नैल्ड कठुड, गाजणा कठुड, थाती कठुड) मे विस्तृत रूप से फैला है जिस कुटुम्ब की मूल जडें अपने समय के जाने माने सेठ धिरजू सुनार से जुडी हैं. इनके वंशज अधिकाशं अपने पारंपरिक कार्य को कर रहें है और कुछ अन्य कार्यों मे परिवार व जाति का नाम रोशन कर रहे हैं.

जिनमे से एक लेख लिखने वाला मैं हूं सागर सुनार, जो आज अपनी जाति के लेख को लिपिबद्ध कर पाया हूं कि जो सुनार जाति की गाथा मुझे मेरे पिताजी स्व.श्री विनोद सुनार जी से सुनने को मिली उसे मैं लिखित रूप मे अपने बेटे विनोदादित्य समरथ सुनार को बडे गर्व के साथ पढा सकूं.

लेखन- सागार सुनार बूढाकेदारिया

ऐतिहासिक तथ्यों के स्रोत- विक्कीपीडिया












                   

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